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E Art N Heart Magazine

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कला और दिल की बात...... मंशा के साथ ...... ।

Editor - Mansha Pradeep

Saturday, 26 April 2014 06:04

अगर कला न होती तो कितने बेरंग होते हम

मानव मन की गहरी और सुंदरतम् अनुभूति जब किसी आकर्षक प्रतीक के माध्यम से अभिव्यक्त होती है तो उसे हम कला कह सकते हैं। यह सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति जब किसी अनगढ़ अनुकृति के रूप में परिणित होती है तो वह अनुकृति हमारी संस्कृति और लोककला के प्रतीक के रूप में पहचानी जाती है। मानव मन की संवेदनषीलता को इन प्रतीकों के माध्यम से समझना बेहद सरल और सुखद होता है।
धर्म और कला
कला की अभिव्यक्ति जब धर्म के माध्यम से की जाती है तब वह कृति पवित्र और पूजनीय हो जाती है। धर्म नेे कला को गंभीरता दी है तो कला ने भी धर्म पर अपने सौंदर्य को न्यौछावर करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। धर्म का कलात्मक सौंदर्य और कला का धार्मिक स्वरूप पायन और गौरवषाली होता है। लोककलाएं इसी श्रेणी में आती हैं जिसमें धर्म और कला का संगम दिखाई देता है।
कितनी कलाएं . . . ?
भारतीय परंपरा के अनुसार कला उन समस्त क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौषल की अपेक्षा हो। यूरोप के शास्त्रियों ने भी कला में कौषल को महत्वपूर्ण माना है। कला शब्द का प्रयोग सबसे पहले भारत में ‘नाट्यषास्त्र‘ में ही मिलता है। अधिकतर ग्रंथों में कलाओं की संख्या 64 मानी गई है। ‘प्रबंधकोष‘ में 72 कलाओं की सूची मिलती है।
‘ललितविस्तार‘ में 86 कलाओं के नाम गिनाए गए हैं। पंडित क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ ‘कलाविलास‘ में सबसे अधिक संख्या में कलाओं का वर्णन किया है। उसमें 64 जनोपयोगी, 32 धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, संबंधी, 32 मात्सर्य-षील-प्रभावमान संबंधी, 64 स्वच्छकारिता संबंधी, 64 वेष्याओं संबंधी, 10 भेषक, 16 कायस्थ तथा 100 सार कलाओं की चर्चा है।
यूरोपीय साहित्य में कला शब्द का प्रयोग शारीरिक या मानसिक कौषल के लिए ही अधिकतर हुआ है। वहां प्रकृति से कला का कार्य भिन्न माना गया है। कला का अर्थ है रचना करना।
धरती पर मौजूद समस्त कलाओं में सबसे श्रेष्ठ कला चित्रकला है। एक चित्रकार अपनी अनुभूतियों को बिंबों के माध्यम से कैनवास पर उकेरता है और एक पूरा का पूरा दृष्य, भाव, विचार, घटना या मर्म दर्षक के मन में गहरे तक उतर जाता है। चित्रकला का हर प्रकार रंग, रेखा और आकृतियों के माध्यम से जब साकार होता है तो उसे देखने मात्र से जीवन के असंख्य रंग हमारे आसपास उड़ने-बहने-चलने और सजने-संवरने लगते हैं। कला का यही रूप सबसे सच्चा और सबसे पवित्र है। सोचिए जरा अगर हमारे जीवन में कला न होती तो कितने बेरंग होते हम . . . यह कल्पना भी विचित्र है। तब कैसा होता संसार में सब कुछ श्वेत और श्याम? मगर यह दोनों भी तो रंग ही हैं। यानी कला और रंग हमारे जीवन का शाष्वत सत्य है, प्लेटो ने इसीलिए तो कहा है कि ‘कला सत्य की कृति की अनुकृति है...‘
- स्मृति आदित्य